NEELAM GUPTA

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लेखनी कहानी -12-Feb-2022वो चाय की अपनी टपरी

अनजान शहर अनजान लोगों के बीच मन आसानी से नहीं लगता। धीरे धीरे उस जगह से लगाव करना पड़ता है ।जब कहीं जाकर मन की दुविधा दूर हो मन वहां रचने लगता हैं।


एम बी ए की पढ़ाई के लिए दिल्ली से कोसों दूर  भारत के साउथवेस्ट कर्नाटक के मनिपाल में मेरा एडमिशन हुआ  ।अच्छे कॉलेज के कारण मैंने वही एडमिशन लेना उचित समझा। क्योंकि जिंदगी का एक डिसीजन हमारी सारी जिंदगी को एक इफेक्ट करता है।  अभी कुछ परेशानी के लिए, सारी जिंदगी पछतावा सहना पड़ता है ,इसलिए दूर ही सही। "अपनों से दूर रहना, यह भी जिंदगी का सबक सिखाता है"

मेरे माता पिता को भी पहले लगा। हम इससे इतनी दूर कैसे रह पाएंग ।लेकिन  मेरी जिंदगी को सफल बनाने की खातिर उन्होंने भी कम्प्रोमाइज कर लिया,और मेरे निर्णय में मेरा साथ दिया ।

"तो लो हो गए हम भी तैयार दूर जाने के लिए,अपने शहर के माहौल से दूर, बहुत दूर..


विचार-विमर्श कर एडमिशन तो ले लिया। लेकिन खाने का क्या करें ।जिंदगी भर जिस खाने की तलब है। वह आसानी से कहां छूटती है। हम तो ठहरे नॉर्थ इंडियन और साउथ वेस्ट में जाकर सिर्फ राई और कड़ी पत्ते के छौंक से दूर दूर से ही हमारी नाक नुकर शुरू हो जाती। सांभर चावल,  डोसा, इडली, यही वहां पर फेमस है। और हम ठहरे रोटी पराठा खाने वाले। कैंटीन में मिलता भी ,लेकिन सभी में राई और कढ़ी पत्ते का छौंक होता। जिससे व वह नॉर्थ इंडियन खाना  होकर भी साउथ इंडियन ही लगता।


कालेज के बाहर चाय की छोटी की टपरी थी। चारो तरफ हरियाली के बीच ,टिन की छत से टपकता पानी बहुत सुंदर लगता था। 24 घंटों में वहां जून-जुलाई में तकरीबन 18 से 20 घंटे बारिश ही होती रहती थी। बहुत तेज बारिश, छम छम बारिश बरसती रहती थी ।जिससे वहां पर उमस भी बहुत रहती थी ।दिन में कब तेज सूरज निकलता और कब बारिश से छुप जाता पता ही नहीं चलता । धूप की लुका छिपी रहती थी।वहाँ हमेशा कुछ लोग चाय पीते रहते थे। बस मै आते जाते देखता रहता था ।


कही मै बीमार न पड़ जाऊँ ।क्योंकि यहाँ का मौसमी वातावरण अलग था ।लेकिन कालेज कैंटीन के खाने का एक ही स्वाद खाकर और चाय पीकर मै थक चुका था ।खाने में कोई रूचि नहीं गई। अपना नार्थ इंडियन खाना बहुत मिस करता था।


एक दिन. .मेरा दोस्त जबर्दस्ती से उस चाय की टपरी पर ले गया।उसने चाय आर्डर कर दी।बहुत सफाई के साथ उन्होंने चाय बनाई।तकरीबन 50 साल की लेडी थी और साथ में 55 साल के करीब उनके साथ उनके पति थे। दोनों मिलकर ही इस चाय की टपरी को चलाते थे। जब उन्होंने पूरी  सफाई से चाय बनाई तो, मैंने तसल्ली पूर्वक चाय के गिलास को पकड़ा और एक घूंट पीते ही मन प्रसन्न हो गया ऐसी मसाले वाली चाय मैं कब से मिस कर रहा था ।आज चाय पीकर लगा न जाने कितने दिनों बाद फिर अपने दिनों वाली चाय पी है ।


जैसे ही हमने चाय खत्म की बारिश शुरू हो गई ।हम दोनों छतरी भी नहीं लेकर आए थे। हम वही बैठकर बारिश रुकने का इंतजार करने लगे। लेकिन बारिश तो और अधिक तेज होती जा रही थी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी हमें भूख भी लगने लगी। कॉलेज में जाने का भी समय हो रहा था ।तब उन्होंने न जाने उन्होंने कैसे समझ लिया कि हमें भूख लगी है ।तो उन्होंने पूछा बेटा क्या खाओगे तो हमने कहा कि आप खाना बना दोगे कहने लगे हां हम अपने लिए भी तो बनाएंगे। आप लोग भी यहीं खा लेना।

 उन्होंने पूछा कहां से हो बेटा तब मैंने बताया मैं दिल्ली से हूं तब उन्होंने पूछा ,आलू पूरी खाओगे यह सुनते ही तो मेरी बांछें खिल गई उन्होंने तुरंत हां में गर्दन हिलाई उन्होंने फटाफट से उबले हुए आलू की सब्जी बनाई और पूरिया बनाई तकरीबन आधे घंटे में उन्होंने खाना तैयार कर हम दोनों के सामने परोस दिया। मैं तो उस खाने को देख कर ही मेरी तो अंदर से भूख और अधिक जागृत हो गई और जैसे ही एक निवाला खाया ,आत्मा तृप्त हो गई। अपना वही खाना नॉर्थ इंडियन खाना का स्वाद पाकर मेरी आंखों में चमक आ गई ।ऐसे लगा जैसे कितने दिनों बाद मां के हाथ से बना खाना खाया है। वह पूरीया बनाती गई और मैं खाता गया मालूम भी नहीं कितना खाना उस दिन मैंने  खाया आखिर में हमने उन्हें पैसे पूछे तो उन्होंने कहा आज तुम हमारे मेहमान थे ।जब कभी आगे से जरूरत हो तो हम पैसे ले लेंगे हमने कितना जोर लगाया लेकिन वह नहीं माने कहने लगे आज हमने अपने बच्चों के जैसे तुमको खिलाया है  हमारे बच्चे तो है नहीं लेकिन तुम बच्चों को खिला कर मन को बहुत संतोष प्राप्त होता है ।आगे से जब भी जरूरत हो मन करे। यहां तभी आकर खाना खा लेना। जो तुम कहोगे वही मैं बना दूंगी यह सुनकर तो मैं बहुत अधिक प्रसन्न हो गया और अब तो मैं दूसरे तीसरे दिन ही वहां जाकर अपनी पसंद की कढ़ी चावल कभी छोले चावल और कभी आलू के पराठे खा कर आता हूं मेरी मां भी बहुत खुश हुई चलो तुम्हारा मन  तो लगा ।।मा के जैसे कोई ध्यान रखने वला तो है ।


मैंने और दोस्तों को भी वहां का पता बताया।जिससे वह चाय की टपरी पर और अधिक भीड़ रहने लगी उनका काम और में भी अच्छे से चलने लगा  दोनों की अच्छे से गुजर बसर होने लगी ।वह हम दोनों को बहुत आशीर्वाद देते कि तुम दोनों के कारण ही हमारी चाय की टपरी की तकदीर बदल गई। और तुम बच्चों की वजह से हमें अपने बच्चों की भी कमी नहीं होती ।ये सब उनकी मेहनत और अपनेपन का नतीजा था।लेकिन इसका श्रेय उन्होंने हमें दे दिया।


इस प्रकार चाय की टपरी से इतना अच्छा,सुंदर रिश्ता बन गया जैसे अपने घर के सदस्यों से होता है ।बड़े हक से हम मांजी से खाने की फरमाइश बता देते। और वह बहुत मन से हमारे लिए खाना बनाती और परोस कर खिलाती ।चाहे जितना भी खाओ एक प्लेट का ही पैसे लेती ।कहती तुम बच्चों को खिलाना , मुझे अपने बच्चों को खिलाने जैसा लगता है मैं इससे संतुष्ट होती हूं।

 मां आखिर मां होती है ,चाहे वह कहीं भी रहती हो इस प्रकार वह चाय की टपरी हमेशा मेरी अविस्मरणीय यादों में बन गई। 





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4 Comments

Acha laga padhkr👌👌

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Preeta

13-Feb-2022 12:53 AM

काफी अच्छी कहानी थी...

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Seema Priyadarshini sahay

13-Feb-2022 12:31 AM

बहुत ही सुंदर लिखा मैम आपने

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